गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य – तीन प्रकार के दान

दान के प्रकार

दान देना एक कर्त्तव्य माना गया है समाज में ,जो दान योग्य स्थान और  समय  देखकर , योग्य पात्र को दिया जाता है , जिसमें प्रति उपकार  की अपेक्षा नहीं होती वह दान सात्विक माना जाता है !
 

दान करके उसके साथ भी हम  एक ज्वाइंट  एकाऊंट क्रियेट कर लेते हैं तो उसका किया गया पाप हमें भी पाप के  भाग में खींच  ले जाता है !

जो  दान क्लेश पूर्वक तथा प्रति उपकार के उद्देश्य से और फल की कामना रखकर दिया जाता है ! वह दान राजस अर्थात् राजसिक दान है !

जहाँ प्राप्ति की इच्छा है , जो  दान बिना सत्कार किये , तिरस्कार पूर्वक , अपवित्र स्थान , अनुचित समय में कुपात् को  दिया  जाता   है ,  वह   दान  तामस  अर्थात् तामसिक दान माना गया है !
  
आज एक व्यक्त्ति गरीब है , उसकी स्थिति को देखते हुए हमें दया आती है और हमने उसको बीस या पचास रूपये  दे दिये ! सोचा चलो मेरा  तो  पुण्य  जमा  हो  गया ! मैने  तो दान  कर दिया ना ! लेकिन  ज़रूरी  नहीं है कि उससे  पुण्य का खाता ही जमा हुआ !  वो  निर्भर इस बात पर करता है कि वो  व्यक्त्ति  इन  पैसों  का  इस्तेमाल किस तरह करता  है !  माना  उस  पैसों से , उसनें एक चाकू  खरीदा  और चाकू  से  किसी का  खून कर  दिया  ! तो  उसने  जो  पापकर्म  किया , उस पापकर्म  के भागीदार  हम भी  बन गए !  क्योंकि मैने दिया तब उसने किया ! अगर मैं नहीं देता तो शायद  वह  करता  भी नहीं !  इसलिए  उसने  जो पापकर्म किया उसके भागीदार हम बन गए !
              
इस प्रकार कलियुग में जाने -अनजाने  में बहुत  पापकर्म  हो गए  हैं !  एक  तो जानकार होता है  कि हमने  झूठ  बोला , किसी  को  दुःख दिया तो ये पापकर्म  के खाते  में चला जाता है ! लेकिन जो अनजानेपन  के पापकर्म  होते हैं , वो इस प्रकार के होते हैं ! जहाँ  अनुचित समय और कुपात्र  को दिया  जाता है , तो उस कुपात्र ने जो कर्म  किया  उसकी भागीदार में , वो पापकर्म में हम भी हिस्सेदार  हो जाते हैं !  कहा  जाता  कि कलियुग  में  पात्र   देखकर  दान  करो , नहीं  तो दान न करना ज्यादा अच्छा है ! कुपात्र  को देकर समाज  में  और भी  कुकर्म  को  बढ़ावा देने की बजाए अच्छा रहे कि दान न करें !

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